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यह व्रत चैत्र कृष्ण अष्टमी या चैत्र मास के प्रथम पक्ष में होली के बाद में पड़ने वाले पहले शनिवार या वीरवार (गुरूवार) को किया जाता है। इस व्रत के प्रभाव से व्रत करने वाले के घर में (कुल में) दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्ध, फोड़े, नेत्रों के समस्त रोग, शीतला के फुंसियों के चिन्ह तथा शीतला जनित दोष दूर हो जाते हैं। इस व्रत के करने से शीतला देवी प्रसन्न होती है।
व्रत की विधि-अष्टमी व्रत करने वाले व्रती को पूर्व विद्धा अष्टमी तिथि का ग्रहण करनी चाहिये। इस दिन प्रातःकाल शीतला माँ को जल से स्नान करना चाहिये।
इस व्रत की विशेषता है कि शीतला देवी को भोग लगाने वाले सभी पदार्थ एक दिन पूर्व ही बना लिये जाते हैं। अर्थात् शीतला माता को एक दिन का बासी (शीतल) भोग लगाया जाता है। इसलिये लोक में यह व्रत बासौड़ा के नाम से भी प्रसिद्ध है। भोग के लिये मिठाई, पुआ, पूरी, दाल-भात, लपसी आदि एक दिन पहले से ही बनाये जाते हैं। जिस दिन व्रत रहता है। उस दिन चूल्हा नही जलाया जाता।
इस व्रत में रसोई घर की दीवार पर पांचों अंगुली घी में डुबोकर छापा लगाया जाता है। उस पर रोली चावल चढ़ाकर शीतला माता के गीत गाये जाते हैं। सुगन्धित गन्ध पुष्प से पूजन कर शीतला माता की कहानी सुननी चाहिये। रात्रि में दीपक जलाना चाहिये। एक थाली में भात, रोटी, दही, चीनी, जल का गिलास, रोली, चावल, मूंग की दाल का छिलका, हल्दी, धूपबत्ती तथा मोठ, बाजरा आदि रखकर घर के सभी सदस्यों को स्पर्श कराकर शीतला माता के मंदिर में चढ़ाना चाहिए। इस दिन चौराहे पर भी जल-चढ़ाकर पूजन करने का विधान है। फिर मोठ, बाजरा का वायना निकालकर उस पर रूपया रखकर अपनी सासु जी के चरण छूकर उन्हें देने की प्रथा है। इसके बाद किसी वृद्धा को भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिये। यदि घर में या परिवार में शीतला माता के कुंडारे भरने की प्रथा हो तो एक बड़ा कुण्डारा तथा दस छोटे कुंडारे मंगाकर छोटे कुंडारों को बासी व्यंजनों से भर कर बड़े कुंडारे में रख दें। फिर उसकी हल्दी से पूजा कर दें। इसके बाद सभी कुण्डारों को शीतला माता के स्थान पर जाकर चढ़ा दें। जाते और आते समय शीतला माता के गीत भी गाये जाते हैं। पुत्र जन्म और विवाह के समय जितने कुंडारे हमेशा भरे जाते हैं उतने और भरने चाहिये।