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विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती पूजन-महोत्सव
माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को ‘बसन्त पंचमी’ (सरस्वती) पूजन एवं महोत्सव मनाना चाहिये।
इस दिन विशेष रूप से देवी सरस्वती का पूजन करना चाहिए। प्रत्येक मानव समाज का परम कर्तव्य है कि वह माघ शुक्ला पंचमी को प्रातः काल उठकर शौच आदि नित्य क्रिया से निवृत्त हो शुद्ध वस्त्र धारण कर गणेश-गौरी का पूजन कर कलश स्थापन करना चाहिए और उस कलश में वाग्देवी का आह्वान करें तथा शास्त्रोक्त विधि के अनुसार देवी सरस्वती का पूजन करना चाहिए। पूजन कार्य में स्वयं सक्षम न हो तो किसी विद्वान् ब्राह्मण द्वारा पूजन कार्य सम्पन्न कराना चाहिए।
ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार वाग्देवी ब्रह्मस्वरूपा, कामधेनी तथा समस्त देवों की प्रतिनिधि हैं। ये ही विद्या, बुद्धि और सरस्वती हैं। श्री मद्देवी भागवत के आधार पर आद्याशक्ति के ये तीनों रूप-महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के नाम से जगत् विख्यात् हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार-सृष्टि काल में ईश्वर की इच्छा से आद्याशक्ति ने अपने को पांच भागों में विभक्त कर लिया था। वे राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा और सरस्वती के रूप में भगवान् श्री कृष्ण के विभिन्न अंगों से प्रकट हुई थीं। उस समय श्री कृष्ण के कण्ठ से उत्पन्न होने वाली देवी का नाम सरस्वती हुआ।
बाधिष्ठात् या देवी शास्त्र ज्ञान प्रदा सदा।
कृष्ण कण्ठोद्भवा साच या च देवी सरस्वती।।
बसन्त पंचमी को देवी सरस्वती का आर्विभाव दिवस माना जाता है। भगवती सरस्वती की उत्पत्ति हुई थी, इनकी आराधना एवं पूजा में प्रयुक्त होने वाली उपचार सामग्रियों में अधिकांश श्वेत वर्ण की होती है। भगवती सरस्वती जी की महिमा अपार है। शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि-महर्षि बाल्मीकि, व्यास, वशिष्ठ, विश्वामित्र तथा शौनक आदि ऋषि इनकी ही कृपा से कृतार्थ हुए।
व्यास जी की थोड़ी ही साधना से प्रसन्न होकर देवी सरस्वती ने प्रकट होकर कहा-व्यास तुम मेरी प्रेरणा से रचित बाल्मीकि रामायण पढ़ो। वह मेरी शक्ति के कारण सनातन बीज बन गया है। उसमें श्री रामचरित के रूप में साक्षात् मूर्तिमयी शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हूँ।
पठ रामायणं व्यासं काव्य बींज सनातनम्।
यत्र रामचरितं स्यात् तदहं तत्र शक्तिमान् ।।
भगवती सरस्वती के अद्भुत विश्व विजय कवच को धारण करके ही व्यास, ऋष्यश्रृंग, भारद्वाज, देवल तथा जैगीषव्य आदि ऋषियों ने सिद्धि पायी थी।
भगवती सरस्वती की उपासना करके ही कवि कुल गुरू कालिदास ने ख्याति पायी। गोस्वामी जी कहते हैं कि देवी गंगा और सरस्वती दोनों एक समान ही पवित्रकारिणी हैं। एक पापहारिणी और एक अविवेक हारिणी है। भगवती सरस्वती विद्या की अधिष्ठातृ देवी हैं और विद्या को ही सभी धनों में प्रधान धन कहा गया है।
(विद्याधनं सर्व धनं प्रधानम्) विद्या से ही अमृतपान किया जाता है। भगवती सरस्वती के उपासकों के लिये कुछ विशेष नियम भी हैं। जिनका पालन अत्यन्त आवश्यक होता है। इन नियमों के पालन करने वाले व्रत कर्ता पर भगवती शारदा विशेष प्रसन्न होती है। नियम इस प्रकार हैं - वेद, पुराण, रामायण, गीता आदि सद्ग्रन्थों का आदर करना चाहिए। उन्हें देवी की साक्षात् मूर्ति समझना चाहिए और पवित्र स्थान पर रखना चाहिए। अपवित्र स्थान पर नहीं रखना चाहिए। अपवित्र अवस्था में छूना (स्पर्श) नहीं चाहिये।
काष्ठ फलक आदि पर ही रखना चाहिए। नियमपर्वूक प्रातः काल उठकर देवी सरस्वती का ध्यान करना चाहिए। विद्यार्थियों के लिये तो सरस्वती देवी की स्तुति वन्दना आदि तो निश्चित् रूप से करना चाहिए। इस प्रकार वागेश्वरी देवी की महिमा अपार है।
देवी सरस्वती बारह नामों से जगत् विख्यात हैं। दिन के तीनों सन्ध्यायों में इनका पाठ करने से माता सरस्वती उस मनुष्य के जिह्वाग्र में आ जाती है।
सरस्वती जी के द्वादश नाम-
प्रथमं भारती नाम द्वितीयं च सरस्वती।
तृतीय शारदा देवी चतुर्थं हंस वाहिनी।।
पंचम जगती ख्याता षष्ठं वागीश्वरी तथा।
सप्तमं कुमुदी प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्मचारिणी।।
नवमं बुद्धि दात्री च दशमं वर दायिनी।
एकादशं चन्द्र कान्तिः द्वादशं भुवनेश्वरी।
द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः।
जिह्वाग्रे वसते नित्यं ब्रह्म रूपा सरस्वती।।