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संकष्टी चौथ का व्रत माघ मास की कृष्णा चतुर्थी को किया जाता है। सूत जी शौनक आदि ऋषियों से कहते हैं, पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर अपने चारों भाई (भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव) एवं द्रौपदी के साथ जंगल में निवास करते थे। एक दिन चारों भाइयों के साथ एवं द्रोपदी के साथ में युधिष्ठिर सुखपूर्वक बैठे हुए थे। उसी समय उनसे मिलने वेदव्यास जी आये। राजा युधिष्ठिर ने झट खड़े होकर आसन दिया और पाद्य अर्ध्य आदि से उनका पूजन किया। और व्यास जी के चरणों में निवेदन किया, प्रभु आज मेरा जीवन धन्य हो गया। मैं अपने दुःख से दुखित नहीं हूँ। मैं इन बान्धवों से बहुत दुखित हूँ। ये मेरे भाई दूसरों के तेज को सहन नहीं कर सकते और न कोई इन्हें जीत ही सकता। क्योंकि ये बड़े पराक्रमी हैं। पर मेरी आज्ञा के वश में हैं। और यह साध्वी द्रौपदी द्रपदराज की पुत्री है। अतः यह भी राजमुख भोगने योग्य है पर दुःख भोग रही है। इसलिये मैं आपसे पूछता हूं कि मैंने ऐसा कौन सा पाप कर्म किया है, जिसके कारण मेरे साथ से सब कष्ट भोग रहे हैं। मेरे हिस्सेदारों ने जुएं में कपट से मेरे राज्य को छीन लिया है। हे ब्रह्मन् हम अपने बान्धवों के साथ में सब हार गये हैं। हमें नगर से निकालकर जंगल भेज दिया गया है। हे स्वामिन् जब ऐसे तिरस्कार किये गये हमव न में चले आये और जब से हम जंगल में दुःख भोग रहे हैं। तबसे आप जैसे पूज्य महात्माओं के दर्शन भी नहीं कर पाता। यदि कोई सब संकटों को दूर करने वाला व्रत हो तो हे ब्रह्मन मुझे उसका उपदेश करें। मैं दुखित हूं, मुझ पर आप महात्माओं को दया करनी चाहिये। धर्म पुत्र राजा युधिष्ठिर को प्रसन्न करते हुए भगवान वेदव्यास जी ने संकट नाशन उत्तम व्रत का उन्हें उपदेश किया। वेदव्यास जी बोले-हे राजन् तुम्हारे समान इस पृथ्वी पर कोई भी धर्मनिष्ठ नहीं है, इसलिये आज मैं तुम्हें व्रतों में उत्तम व्रत को कहता हूं। पृथ्वी भर में संकष्ट नाशन नामक व्रत के समान दूसरा कोई भी व्रत नहीं है। इस व्रत को करने से सब काम सिद्ध हो जाते हैं। इस संकट नाशक व्रत के प्रभाव से विधार्थी विद्या, धनार्थी धन, पुत्रार्थी पुत्र का लाभ प्राप्त करता है। राजन् इस प्रसंग में एक इतिहास है। उसको सुनो-मनुवंश में एक राजा था, जब उसको दुष्ट ग्रहों ने दबा लिया तब वह भी संकटों से घिर गया। मन्त्री पुत्र, पत्नी राजा को अत्यन्त प्रेम करते थे, लेकिन दैव योग से शत्रुओं ने उसका राज्य छीन लिया। खजाना, सेना आदि सब नष्ट भ्रष्ट कर दिया तब राजा अपने बान्धवों और रानी रत्नावली के साथ राज्य से निकलकर जंगल की ओर चले गये। वह वन में क्षुधा, प्यास से कृश हो गया। धारण करने के लिए वस्त्र भी एक ही रह गया। राजा धूप में घूमता घामता अत्यन्त व्याकुल हुआ।
हे राजन् ऐसे पत्नी के साथ वह राजा वन में दुःख भोगने लगा। एक दिन सूर्यास्त के बाद चारों ओर श्रृगालों ने उपद्रव करना शुरू किया। बाघ भी भयंकर शब्द करने लगे। वर्षा भी होने लगी, काटों ने रानी के चरण बींध दिये। जिससे रानी घबराकर रोने लगी। राजा-रानी को दुःख में पड़े देख और भी दुखित हो गया। प्रभातकाल होने पर अचानक मार्कण्डेय ऋषि का दर्शन हुआ। राजा ने दण्डवत प्रणाम किया। और अपने दुःख का कारण पूछने लगा-हे स्वामिन् मैंने ऐसा कौन सा पाप कर्म किया है, जिसके कारण इतना संकट मेरे जीवन में आया है। लक्ष्मी राज्य से विमुख होना पड़ा। मार्कण्डेय ऋषि ने कहा-राजन् पूर्व जन्म में तुमने दुष्कर्म किया है। उसे तुम सुनो। पूर्व जन्म में तुम व्याध थे जंगल में जाकर निरपराध जीवों को मारते थे। उसी जंगल में माघ कृष्णा चतुर्थी के दिन रात को घूमते हुए कृष्णा नदी का सुन्दर तालाब देखा। उसके किनारे पर लाल कपड़ा पहिने गणेश जी को पूजती हुई नागकन्याओं का समूह व्रत में लगा। हुआ देखा दे राजन् धीरे-धीरे जाकर उनसे पूछा हे पूज्याओं यह तुम क्या करती हो ? नाग कन्याओं ने कहा-कि हम गणेश जी का पूजन कर रही हैं, उन्हीं का व्रत कर रही हैं। यह व्रत समस्त कामनाओं को पूर्ण कर समस्त व्याधियों का शमन करता है।
राजन् तुम्हारे इस व्रत की विधि पूछने पर नाग कन्याओं ने कहा-जब कभी भक्ति उपजे तो माघ कृष्णा चतुर्थी को लाल पुष्प से गणपति जी का पूजन करें। और भक्ति भाव से इकट्ठे किये हुए धूप, दीप नैवेद्य आदि उपचारों से पूजन करें। और नाना विधि-मूंग, चने तिल आदि के लड्डू और घी की पूड़ियों का एवं छः रस वाले पदार्थों का भोग लगावे। हे राजन् उन नाग कन्याओं से तुमने सांगोसांग विधि जानकर, तुमने भी उस संकट नाशन् चौथ का व्रत किया। जिसके प्रभाव से तुम्हें पुत्र, पौत्र, धन, धान्य की अमित सम्पत्ति प्रदान करने वाला संकटों से छुटकारा दिलाने वाला व्रत भूलकर छोड़ दिया। फिर आयु पूर्ण होने पर तुम्हारी मृत्यु हो गई। तुम्हारे द्वारा पूर्व जन्म के व्रत के प्रभाव से इस जन्म में तुम्हारा जन्म राजवंश में हुआ। और बड़े राज्य की प्राप्ति हुई। किन्तु तुमने धन के मद से उस व्रत की अवज्ञा की थी। इसी दोष से संकट प्राप्त हुआ है।
राजा ने प्रार्थना की प्रभो अब मुझे क्या करना चाहिए। कोई व्रत कहिये जिसके करने से मुझे राज्य मिल जाय। मार्कण्डेय मुनि बोले हे राजन् तुम अब उसी व्रत को करने का जल्दी ही संकल्प करो, आप सन्देह न करो आपको व्रत के प्रभाव से आपका राज्य पुनः प्राप्त हो जायेगा। मार्कण्डेय मुनि इतना कहकर अन्तर्ध्यान हो गये। राजा ने मुनि के बताये हुए संकष्ट नाशन व्रत को पवित्र मन से किया जिसके प्रभाव से बिछड़े हुए सभी मंत्री, बान्धव, किंकर और सैनिक फिर आ गये उनको उसी समय गणेश जी की कृपा से अपने साथ ले अपने राज्य को आ गया। और पुत्र पौत्रों के साथ राजा सुख के साथ भोगने लगा। देवव्यास जी कहते हैं, हे धर्मपुत्र आपको भी वही व्रत करना चाहिये। पुरूषों को भी करना चाहिए, स्त्रियों को विशेष रूप से सिद्धि देने वाला है। यह सुन राजा युधिष्ठिर ने निवेदन किया आप कृपा संकट नाशन व्रत को यथार्थ रूप से वर्णन करें।
वेदव्यास जी बोले-कि जब मनुष्य बहुत संकटों से दुःखी हो तभी माघ मास की कृष्णा चुतर्थी को गणपति पूजन करना चाहिए। हे राजन् श्रावण कृष्णा चतुर्थी के दिन चन्द्रोदय होने के पश्चात् को इस व्रत को ग्रहण करना चाहिए। अथवा माघ कृष्णा चतुर्थी को चन्द्रमा उदय होने पर उसमें चौथ हो तो उस दिन इस व्रत को ग्रहण करना चाहिए। इस दिन सफेद तिलों से स्नान करके शुद्ध वस्त्रादि धारण कर पूजा करें। जैसी अपनी शक्ति हो उसी के अनुसार सोने की मूर्ति बनाकर रत्नों से जड़ित कलश पर स्थापित कर शास्त्रोक्त विधि षोडशोपचार द्रव्यों से पूजन करना चाहिए। राजन्, क्वार में उपवास, कार्तिक में दूध पान, मार्गशीर्ष में निराहार, पौष में गौमूत्र, पान, माघ में तिल, और फाल्गुन में घी और शक्कर का भोजन चैत्र में पंचगव्य, वैशाख में दूब रस, ज्येष्ठ में पल भर घी, और आषाढ़ में मधु भोजन करना चाहिए। इस प्रकार मासों के नियमों को करके मनुष्य संकटों से छूट जाता है। यदि ऐस न कर सके तो सात ग्रास खाकर सुखपूर्वक रह जाय। राजन् नाना विधि से गणपति को नैवेद्य अर्पित करे। दश तिलों के लड्डू बनावे। उनमें से पांच गणपति के आगे रखें। पांच लड्डू ब्राह्मण को दे दे। ब्राह्मण को लड्डू देने के पहले देवता की तरह भक्तिपूर्वक आचार्य की पूजा करें। शक्ति के अनुसार दक्षिणा दे पर लड्डू पांच ही दें। फिर गणपति जी से इस प्रकार प्रार्थना दे पर लड्डू पांच ही दें। फिर गणपति जी से इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए। हे लम्बोदर हे सुमुख मैं सदैव सांसारिक दुखों से दुःखी रहता हूं आप मुझ पर प्रसन्न होकर मेरी रक्षा कीजिये। मेरे संकटों को नष्ट करिये संकटों के विनाशक आपके लिये बारम्बार प्रणाम है।
गणेश जी की प्रार्थना के पश्चात् चन्द्रमा को अर्ध्य प्रदान करें। फिर गणेश जी की प्रसन्नता के लिए ब्राह्मण भोजन करावें। पीछे बान्धवों के साथ आप भी पांच ही लड्डुओं को खाकर रह जायें। यदि न रह सकें तो दधि के साथ एक अन्न पदार्थ का भोजन कर लें। अथवा हे पाण्डुनन्दन व्रत के दिन एक ही बार भोजन करके रहना चाहिए। व्रत के दिन पृथ्वी पर शयन करें। क्रोध को आने न दें। एवं लोभ व दम्भ को भी पास में न आने दें। प्रतिमा में आवाहित देवता की कला का विसर्जन कर आचार्य को दे दें। और व्रत पूर्ण होने पर माघ वही चतुर्थी को उद्यापन करना चाहिए।
उद्यापन विधि-सर्वप्रथम विद्वान ब्राह्मण को बुलाकर वरण करें। तत्पश्चात् पूजन, हवन, के पश्चात् इक्कीस ब्राह्मणों को वस्त्राभूषण दान कर गौर सुवर्ण आदि से पूजा करके मोदकों का भोजन कराना चाहिए। इसके पश्चात् आचार्य का भी पूजन कर गौ पृथ्वी, वस्त्र आदि एवं भूषण देकर सपत्नीक आचार्य का पूजन करें। जिसमें गणपति प्रसन्न हो जायें (सपत्नीकं सुवर्णाद्यैर्गोभूवस्त्रादि भूषणैः आचार्यं पूजयेत् राजन् गणेशस्य तु तुष्टये।) इस प्रकार विधि विधान के साथ उद्यापन पूजन जो मनुष्य करता है, गणेश जी उसके ऊपर प्रसन्न हो जाते हैं। इसमें कोई संशस नहीं है। जो तीन वर्ष या एक वर्ष प्रतिमास अथवा जीवन पर्यन्त इस व्रत को करता है, उसके दुःख, दरिद्रता, और संकट कभी भी नहीं आते। संवत्सर बीतने पर बारह ब्राह्मणों को भोजन करायें। विद्यार्थी को विद्या, धनार्थी को धन, पुत्रार्थी को पुत्र और स्त्री को सौभाग्य प्राप्त होता है। जो इस व्रत की कथा का श्रवण करते हैं। उनके मनोरथ अनायास ही पूर्ण हो जाते हैं। भगवान् वेदव्यास जी राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर वहां ही अन्तर्धान हो गये। पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर ने उक्त विधि से संकट नाशन व्रत को किया। उस व्रत के प्रभाव से अपने शत्रुओं को कुरूक्षेत्र में मारकर राज्य को प्राप्त हो गये। यह नारदीय पुराण में कहीं हुई संकट हरण चतुर्थी गणपति के व्रत की कथा समाप्त हुई।