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भारत के लिए बिहार प्रांत का सर्वाधिक प्रचलित एवं पावन पर्व है सूर्य षष्ठी। सूर्य षष्ठी मुख्य रूप से भगवान सूर्यनारायण का व्रत है। इस व्रत में सर्वतोभावेन भगवान सूर्य की पूजा की जाती है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के आधार पर प्रकृति देवी के एक अंश को देवशेना कहते हैं। जो सबसे श्रेष्ठ मातृका मानी जाती हैं। ये समस्त लोकों के बालकों की रक्षिका देवी हैं। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक नाम ‘षष्ठी’ भी है।
षष्ठांश प्रकृतेर्याच साच षष्ठी प्रकीर्तिता।
बालकाधिकष्ठातृदेवी विष्णुमाया च बालदा।।
विष्णुमाया षष्ठी देवी बालकों की रक्षिका एवं आयुप्रदा है। षष्ठी देवी के पूजन का प्रचार पृथ्वी पर कब से हुआ इस संदर्भ में एक कथा इस पुराण में आयी है। प्रथम मनु पुत्र प्रियव्रत को कोई संतान न थी। एक बार महाराज प्रियव्रत ने कश्यप मुनि से अपना दुःख व्यक्त किया। कश्यप जी ने राजा को पुत्रेष्टि यज्ञ करने का परामर्श दिया। यज्ञ के फल से मालिनी नाम की महारानी ने यथावसर एक पुत्र को जन्म दिया किन्तु वह शिशु मरा हुआ था। महारानी को मृत प्रसव हुआ इस समाचार से सारे नगर में शोक छा गया। महाराज प्रियव्रत के ऊपर मानो वज्रपात ही हुआ हो। शिशु के मृत शरीर को अपने हृदय से लगा प्रलाप कर रहे थे। किसी में साहस नहीं था कि वह और्ध्वदैहिक क्रिया के लिए राजा से बालक का शव अलग कर सके। तभी एक आश्चर्य हुआ देखा कि आकाश से एक विमान पृथ्वी पर उतरा है। विमान में एक दिव्याकृति नारी बैठी हुई थी। राजा के द्वारा पूजित होने के उपरान्त देवी ने कहा मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री षष्ठी देवी हूँ। मैं विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूँ एवं पुत्रों को आयु प्रदान करती हूँ।
इतना कहकर देवी शिशु के मृत शरीर का स्पर्श किया जिससे वह बालक जीवित हो उठा। महाराज बहुत प्रसन्न हुए देवी की अनेक प्रकार से राजा ने पूजा कर स्तुति की। देवी ने भी प्रसन्न होकर राजा को कहा तुम ऐसी व्यवस्था करो। जिससे पृथ्वी पर सभी हमारी पूजा करें। इतना कहकर देवी अन्तर्धान हो गई। राजा की आज्ञा से सभी शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को प्रतिमास षष्ठी तिथि को प्रतिमास षष्ठी महोत्सव मनाने लगे।
इसी समय से लोग शिशु के जन्म से छठे दिन छठी पूजन बड़े धूमधाम से करते हैं। प्रसूता को प्रथम स्नान भी इसी दिन कराने की परंपरा है। पुराणों में इन्हीं देवी को कात्यायनी देवी कहा है। जिनकी पूजा नवरात्रों में षष्ठी तिथि को होती है,
यथा - षष्ठं कात्यायनीति च ।
कार्तिक शुक्ला षष्ठी को उपवास करके सप्तमी को पुनः सूर्य पूजन करें। षष्ठी के दिन स्नान आदि करके पवित्र होकर संकल्प करें।
संकल्प :- श्री सूर्य प्रीत्यर्थं श्री सूर्यषष्ठी व्रतं करिष्ये। किसी नदी या तालाब में खड़े होकर एक बांस के सूप में या डलिया में केला, फल, मिष्ठान, ईख, अलोना पदार्थ रखकर पीले वस्त्र से ढक कर, सूर्य पूजन करें। धूप दीप दें। सूप को हाथ में लेकर अर्ध्य दें।
अर्ध्य मन्त्र -
ॐ एहि सूर्य सहस्रांशो तेजो राशि जगत्पये।
अनुकम्पय मांभक्त्या गृहाणार्ध्यं दिवाकर।।
रात्रि में जागरण करें फिर सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर इसी प्रकार सूर्य अर्ध्य देकर व्रत का पारण करें।
सर्वप्रथम इस व्रत को च्यवन ऋषि की धर्मपत्नी सुकन्या ने अपने अन्धे पति के आरोग्य लाभ के लिये किया था। इससे च्यवन ऋषि को नेत्र ज्योति प्राप्त हुई तथा वे युवा हो गये। सूर्य के पुत्र देवों के वैद्य अश्विनी कुमारों ने आकर युवावस्था प्रदान की। इस व्रत को 12 वर्ष करने वाली व्रती जन्म - जन्मान्तर तक सौभाग्यशाली रहता है। काशी में यह व्रत डाला छठ के नाम से प्रसिद्ध है। बड़े उत्साह से एवं श्रद्धा भाव से इस व्रत को करके सूर्य अर्ध्य देते हैं।